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Historical Truth





आज के देशवासी यह जानते ही नहीं कि सच्चे हिंन्दुस्तानी वे थे ,जिन्होंने भारत माँ को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया और स्वतंत्र भारत की रक्षा के लिए  कभी पाकिस्तान,कभी चीन और फिर कारगिल की बरफीली चोटियों पर जान हथेली पर रखकर शत्रु से लोहा लेते हुए विजय प्राप्त की।उन्होंने अपनी जवानियाँ अपने देश के लिए अर्पित कर दी।



क्या हम देशवासी जानते हैं कि काकोरी कांड के शहीद अशफाक उल्ला खाँ ने फाँसी गले में डालने से पहले यह कहा था- ' हिंन्दुस्तान की जमीन में पैदा हुआ हूँ, हिंन्दुस्तान ही मेरा घर, मेरा धर्म और ईमान है। मैं हिंन्दुस्तान के लिए मर मिटूँगा और इसकी मिट्टी में मिलकर फक्र का अनुभव करुँगा।



शहीद मदन लाल ढींगरा ने भी लंदन की पैटर्न विले जेल में फाँसी दिए जाने से पहले यही कहा था- ' भारत माँ की सेवा मेरे लिए श्रीराम और कृष्ण की पूजा करने जैसी है।' भारत के बेटे- बेटियाँ स्वातंत्र्य समर में यही गीत गाते थे-



  हिंन्दुस्तान के हम हैं , हिंन्दुस्ताँ हमारा।


  प्राणों से भी बढ़कर है, यह हमको प्यारा।।



आजादी के दीवानों के लिए भारत माँ थी और आज भी है, पर स्वतंत्र भारत में कुछ तथाकथित उच्च शिक्षितों एवं सत्तावालों ने भारत कोऔर इसकी संस्कृति को विस्मृत कर दिया। वे संख्या में नगण्य पर राज करने में अग्रगण्य हो गये। उन्होंने हमारी विचारधारा पर वर्चस्व जमा लिया , जिसका दुष्परिणाम यह सामने आया कि हम भारतवासी यह भूल ही गये कि 23 दिसम्बर, 1912 को दोपहर के सूर्य के सामने ही दिल्ली के दिल चाँदनी चौक में एक धमाका हुआ था ।इससे ऐसा हड़कंप मचा जिससे अँग्रेज सरकार बौखला उठी। सत्तामद में हाथी पर सवार लाॅर्ड हार्डिंग घायल हुआ और उसका अंगरक्षक मारा गया।




 कलकत्ता के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाकर अँग्रेज शासक अपनी सत्ता का सिक्का जमाना चाहता थे। महान क्राँतिकारी रास बिहारी बोस के नेतृत्व में भारत के वीर पुत्रों ने अपने संकल्प बल से विदेशी शासकों का यथायोग्य स्वागत किया। इस बम कांड के बाद जो गिरफ्तारियाँ हुईं उनमें भाई बाल मुकुंद, अवध बिहारी,अमीर चंद, वसंत कुमार आदि क्राँतिकारी पकड़े गये।अदालतों में न्याय का नाटक हुआ और ये सभी क्राँतिकारी फाँसी के तख्ते पर लटका दिए गए। वे तो शहीद हो गए, किंतु शहीदों की चिताओं पर मेले लगाने का संकल्प करने वाले शहीदों को भूल गए।



मेले लगाने तो दूर , लोग अब यह तक भूल चुके हैं कि चाँदनी चौक में इसी।। दिसम्बर के महीने किसी ने जीवन देकर अँग्रेजों का दिल दहलाया था। एक काकोरी कांड 9 अगस्त, 1925 को हुआ था । शस्त्र संघर्ष के लिए क्राँतिकारियों ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में सरकारी खजाना लूटने के लिए लखनऊ जा रही गाड़ी रात 8 बजे काकोरी के पास रोककर उसकी तिजोरी निकाल ली। सरकारी खजाना लूटने की योजना तो पूरी सूझ-बूझ से बनाई थी,फिर भी वे पकड़े गये। न उन्हें फाँसी की चिंता थी, न यातनाओं की। बिस्मिल जी द्वारा रचित गीत सभी मिलकर गाते थे-



  सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।


  देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है।।




 वचन के धनी बिस्मिल ने जो कहा ,वही कर दिखाया। 19दिसम्बर,1927 को भारत का वह वीर पुत्र गोरखपुर की जेल में हँसते-हँसते फाँसी पर झूल गया। काकोरी कांड का ही दूसरा क्राँतिकारी वीर अशफाक उल्ला भी जीवन के 27वें वर्ष में 19दिसम्बर,1927 को ही फैजाबाद की जेल में फाँसी पर लटका दिया गया। फाँसी के पूर्व अशफाक ने यह भी कहा - 'यह तो मेरी खुशकिस्मती है कि मुझे वतन का आलातरीन ईनाम मिला है। मुझे फक्र है, मैं पहला मुसलमान होऊँगा, जो भारत की आजादी के लिए फाँसी पा रहा हूँ।' पर आज देश की बदकिस्मती है कि अधिकतर लोग शहीदों को भूल गये।




बंगाल के लाडले बेटे राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को भी काकोरी में बिस्मिल के साथ होने के कारण 17दिसम्बर, 1927 को मृत्युदण्ड मिला। भारत के बलिदानी बेटे ने फाँसी की रस्सी को वरमाला समझकर शहादत का जाम पीया। तीन दिन में माँ भारती के तीन बेटे फाँसी पर लटकाए गए, फिर भी करोड़ों देशवासी और उनके नेता दिसम्बर में शहीदों को भूल जाते हैं, केवल नया वर्ष ही उन्हें याद रहता है मौज- मस्ती करने के लिए।



कैसे थे वे लोग ? कहाँ गए वे लोग ? क्यों भूल गए उन्हें देशवासी और वह भी दिसम्बर माह में , जिसके सीने पर अपने खून से उन्होंने यह इतिहास लिखा था। कटु सत्य तो यह है कि नई पीढ़ी इन बलिदानियों से परिचित ही नहीं हो सकी और इसके लिए दोषी हैं हमारे देश के नेता, तथाकथित , धर्मगुरु, शिक्षा-व्यवस्था और टेलीविजन चैनलों के नीति निर्धारक ,जो नववर्ष के स्वागती कार्यक्रमों का आनन्द लेने और देने की चिंतापूर्ण तैयारी में बेचैन और परेशान हैं। पर एक वे थे जिन्हें -



   लगी लौ देश से मतवाले बन गए ,


   अरमान जिंदगी के छाले बन गए।



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